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इंटर पास भी कर सकेंगे डीएलएड- हाईकोर्ट 

प्रवेश योग्यता बढ़ाने का आदेश रद्द

यह आदेश न्यायमूर्ति मनीष कुमार ने यशांक खंडेलवाल आदि की याचिका पर दिया है। कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि प्रवेश की प्रक्रिया 12 दिसंबर तक चलेगी, इसलिए सभी याचियों को प्रवेश प्रक्रिया में भाग लेने की अनुमति दी जाए।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य शैक्षिक प्रशिक्षण एवं शिक्षण अनुसंधान परिषद (डायट) द्वारा संचालित डीएलएड दो वर्षीय प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में प्रवेश की अर्हता इंटरमीडिएट से बढ़ा कर स्नातक करने के राज्य सरकार के आदेश को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने इस संबंध में जारी नाै सितंबर 2024 के शासनादेश के उस अंश को रद्द कर दिया है, जिसमें दो वर्षीय पाठ्यक्रम में प्रवेश की अर्हता को बढ़ाकर इंटरमीडिएट से स्नातक कर दिया गया था। कोर्ट ने प्रदेश सरकार के निर्णय को भेदभाव पूर्ण करार दिया है।

यह आदेश न्यायमूर्ति मनीष कुमार ने यशांक खंडेलवाल आदि की याचिका पर दिया है। कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि प्रवेश की प्रक्रिया 12 दिसंबर तक चलेगी, इसलिए सभी याचियों को प्रवेश प्रक्रिया में भाग लेने की अनुमति दी जाए।

याचिका में कहा गया था कि डीएलएड (स्पेशल कोर्स) जो कि दिव्यांग बच्चों को पढ़ाने का प्रशिक्षण है और अर्हता इंटरमीडिएट ही है। एनसीटी द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थानों में इस पाठ्यक्रम में प्रवेश की योग्यता 50 प्रतिशत अंक के साथ इंटरमीडिएट है। याचियों का कहना था कि इस आदेश से कुछ वर्ग के अभ्यर्थियों के साथ भेदभाव होगा जो डीएलएड पाठ्यक्रम में प्रवेश लेना चाहते हैं। क्योंकि इसी पाठ्यक्रम के स्पेशल कोर्स की अर्हता अभी भी इंटरमीडिएट है। इससे वर्ग के भीतर वर्ग पैदा हो जाएगा।

प्रदेश सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि सरकार को एनसीटीई द्वारा तय योग्यता से उच्च योग्यता निर्धारित करने का अधिकार है। इसमें कोई अवैधानिकता नहीं है। यह भी कहा गया कि यह सरकार का नीतिगत निर्णय है जिसका न्यायिक पुनरावलोकन संभव नहीं है। क्योंकि न्यायिक पुनरावलोकन तभी हो सकता है जब आदेश असांविधानिक हो।

कोर्ट ने कहा कि इस बात में कोई विवाद नहीं है कि प्राइवेट संस्थानों में इसी पाठ्यक्रम की अर्हता इंटरमीडिएट है। राज्य सरकार द्वारा डीएलएड और डीएलएड स्पेशल कोर्स के लिए अलग-अलग योग्यता तय करना वर्ग के भीतर वर्ग पैदा करना है। जबकि दोनों पाठ्यक्रमों में कोई तात्विक फर्क नहीं है। कोर्ट ने कहा कि सामान्य स्थिति में अभ्यर्थी 3 वर्ष में सहायक अध्यापक होने की अर्हता प्राप्त कर लेगा। जबकि, नई व्यवस्था से उसे 5 वर्ष लगेंगे। यह मनमाना, भेदभावपूर्ण निर्णय है और संविधान के अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार के विपरीत है। कोर्ट ने नौ सितंबर के शासनादेश के उस अंश को रद्द करते हुए याचियों को प्रवेश प्रक्रिया में शामिल करने का निर्देश दिया है।

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