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समाज मे फेसबुक बना तीसरी आंख, गम व्यक्ति मिला फेसबुक पर

26 साल पहले मेले में खो गए थे, फेसबुक पर मिले… ये कोई फिल्मी कहानी नहीं, आजमगढ़ के मौर्या की सच्चाई है, मौर्य अपने परिवार के साथ हैं। खुश हैं। 26 साल पहले मेले में खो गए थे। हाथ में बने टैटू और फेसबुक ने परिवार से लोगों को मिला दिया है। वर्ष 1996 में मेले में गुम हो गए थे। मूक और बाधिर होने के कारण लोगों से कुछ कह नहीं पाए।

आजमगढ़ में 26 साल बाद परिवार से मिला मूक- बधिर व्यक्ति

मेला देखने के दौरान 1996 में गायब हो गए थे जिलाजीत मौर्या
रायबरेली में एक दुकान के पास गांव के प्रधान ने भटकते पाया
फेसबुक पर शेयरिंग से परिवार तक सलामती की मिली जानकारी
आजमगढ़: मनमोहन देसाई की फिल्मों में आपने देखा होगा, एक परिवार मेले में जाता है। वहां दो भाई बिछड़ जाते हैं। दोनों फिर जीवन के किसी मोड़ पर मिलते हैं। लेकिन, ये कहानी फिल्मी नहीं है। सच्चाई है। आजमगढ़ के जिलाजीत सिंह मौर्य की सच्चाई। उनके जीवन के करीब तीन दशकों के गम में बीतने की सच्चाई। मेले में गुम हो गए। दिव्यांग थे। न बोल सकते थे। न सुन सकते थे। जन्मजात मूक- बधिर। दिव्यांगता ने उनके जीवन के 26 साल उनसे छीन लिए। भटकना पड़ा। कष्ट सहना पड़ा। लेकिन, अब घर लौट आए हैं। अपने परिवार के साथ मिलकर खुश हैं। व्यक्त नहीं कर सकते, चेहरा संवेदनाओं को जाहिर करता है। हाथ में बने टैटू और फेसबुक ने जिलाजीत को अपने परिवार से मिला दिया। फिल्मी कहानी की तरफ यह अंत नहीं, एक 26 साल से दर- दर की ठोकरें खाने वाले दिव्यांग के जीवन की नई शुरुआत है।
जिलाजीत के साथ क्या हुआ था?
जिलाजीत सिंह मौर्य आजमगढ़ जिले के गौठान गांव के रहने वाले हैं। एक समृद्ध किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं। परिवार में सबसे छोटे बेटे हैं। 26 साल पहले वर्ष 1996 में गांव के बाहरी इलाके में मेला लगा था। जिलाजीत मेला देखने गए। लेकिन, वापस नहीं लौटे। गुम हो गए। भटकते रहे 26 साल तक। जिस समय गुम हुए थे 35 साल के थे। अब 61 साल के हैं। आजमगढ़ के एक सरकारी स्कूल में विज्ञान शिक्षक जिलाजीत के भतीजे चंद्रशेखर मौर्य ने कहा कि 1 जून 1996 की शाम को यह घटना घटी थी। गर्मियों की शाम थी। जिलाजीत मेला देखने गए और वापस नहीं लौटे। जिलाजीत के पिता सोहन मौर्य और दो भाई व्याकुल थे। गमगीन थे। वर्ष 1991 में उनकी मांग का देहांत हो गया। बेटे का चेहरा देखने की आस लिए मां चली गई। हालांकि, उन्हें उम्मीद थी, बेटा एक दिन जरूर लौटेगा।
चंद्रशेखर बताते हैं कि जिलाजीत चाचा मानसिक रूप से अन्य लोगों की तरह मजबूत नहीं थे। गुम हुए तो परिवार में कोहराम मच गया। मेरे दादाजी महीनों तक रोते रहे। मेरे पिता और दूसरे चाचा ने उनकी तलाश की। आसपास के जिलों में भी खोजा गया। उनका पता नहं चला। हमलोगों ने उनको वापस पाने के लिए तीर्थस्थलों पर जाकर मन्नत मांगी। गरीबों को दान दिया। कई आयोजन किए। लेकिन, सब व्यर्थ।
2011 में पिता की हो गई मौत
दिन बीतने के साथ जिलाजीत के मिलने की संभावनाएं क्षीण होती चली गईं। वर्ष 2011 में उनके पिता की मृत्यु हो गई। जिलाजीत के भतीजे- भतीजी बड़े हो गए। उनकी शादी हुई। बच्चे हुए। जिलाजीत अब स्मृतियों में ही सीमित थे। परिवार इस हानि से उबर चुका था। किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे जिंदा वापस लौटेंगे। लेकिन, यह चमत्कार हुआ। जिलाजीत मिले। घर वापस लौटे।
रायबरेली में भटक रहे थे जिलाजीत
आजमगढ से 260 किलोमीटर पश्चिम रायबरेली के हटवा गांव में एक नाई की दुकान पर ग्राम प्रधान दिलीप सिंह ने एक वृद्ध व्यक्ति को बुरी हालत में देखा। यह वृद्ध व्यक्ति बोल या सुन नहीं सकता था। उसके ठिकाने के सुराग के रूप में केवल उनके हाथ पर गुदा टैटू था। परंपरागत ‘गोदना’ (प्राकृतिक रंग का उपयोग कर बनाए गए एक स्वदेशी टैटू) में उसका नाम और पता लिखा था। लेकिन, वक्त की मार उस पर भी पड़ चुकी थी। गोदना फीका पड़ गया था। हालांकि, ‘मौर्य’ और ‘आजमगढ़’ अभी भी पढ़े जा सकते हैं। दयालु प्रधान उन्हें अपने घर ले गए। खाना खिलाया। उसके टैटू वाले हाथ की तस्वीर खींची। उसे फेसबुक पर पोस्ट कर दिया। सोशल मीडिया पर इस पोस्ट को साझा किया जाने लगा। एक दिन यह पोस्ट जिलाजीत के परिजनों तक यह पहुंचा।
फेसबुक पोस्ट ने परिवार से मिलाया
फेसबुक पर शेयर हो रहे पोस्ट पर एक दिन जिलाजीत के एक संबंधी की नजर पड़ी। चंद्रशेखर बताते हैं कि 13 दिसंबर को एक साथी शिक्षक ने मुझे एक बुजुर्ग व्यक्ति की फोटो भेजी, जिसके हाथ पर फीका टैटू था। इसे फेसबुक से लिया गया था और अमेठी के शिवेंद्र सिंह ने पोस्ट किया गया था। उन्होंने कहा कि बिना सोचे मैंने शिवेंद्र सिंह को एक मैसेज भेजा। वह ग्राम प्रधान दिलीप सिंह के बेटे निकले। हमने उनसे बुजुर्ग व्यक्ति की तस्वीर साझा करने का अनुरोध किया। अपने पिता को उनकी तस्वीर दिखाने को दौड़ा। पिता ने अपने भाई की पहचान की।
शिवेंद्र ने इस मामले में कहा कि मेरे पिता एक बुजुर्ग व्यक्ति को घर ले आए। उन्हें खाना खिलाया और डॉक्टर को बुलाया। फिर हमने उनके परिवार के सदस्यों को खोजने का कठिन काम शुरू किया। जिलाजीत के दो भाइयों ने उनकी पहचान की पुष्टि की। इसके बाद चंद्रशेखर और बिजली विभाग में काम करने वाले छोटे भाई के साथ अपने चाचा को वापस लाने के लिए अमेठी के लिए रवाना हो गए।
गांव में उत्सव जैसा माहौल
चंद्रशेखर कहते हैं कि जब मैं 20 साल का था, तब वह खो गए था। लेकिन, मैंने उन्हें जैसे की देखा पहचान लिया। हम अपने चाचा को घर ले आए। गांव में उत्सव जैसा माहौल है। मेरे पिता और जिलाजीत के बड़े भाई 70 वर्षीय जामवंत मौर्या ने जैसे ही अपने छोटे भाई को देखा, वे डांस करने लगे। जिलाजीत के छोटे भाई यानी दूसरे चाचा ने हमें खीर बनवाने को कहा। ग्रामीणों के बीच उसका वितरण हुआ। वे कहते हैं कि मेरे चाचा ने काफी कुछ सहा है। कोई भी उस दर्द को नहीं जान पाएगा, क्योंकि वह बोल नहीं सकते। लेकिन, हम यह सब पीछे छोड़ना चाहते हैं। हम यह चाहते कि वह एक खुशहाल और पूरा जीवन जीयें।

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